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कविता

जलती हुई औरत का वक्तव्य

स्नेहमयी चौधरी


मुझे बचाओ, मुझे बचाओ -
कहती हुई मैं
आग की दिशा में बढ़ी चली जा रही हूँ
लपटों की तेज गर्मी
और जलन अनुभव कर रही हूँ
परंतु झुलसती हुई भी मैं
उसी को पकड़ने के लिए आतुर हूँ!

मेरी विडंबना का यह रूप कब खत्म होगा ?
कब शुरू होगी मेरी अपनी कहानी -
जहाँ सुबह के सूरज की तरह ताजी मैं उग सकूँगी -
अथवा यों ही सती होती रहूँगी
या जलकर मरती रहूँगी,
साक्षात‍‌‌ आग में जल मरने वाली स्त्रियाँ कितनी भाग्यवान हैं!
और कुछ नहीं, मुक्त तो हैं!
इतनी लक्जरी अफोर्ड तो कर सकती हैं,
जो मैं नहीं कर पा रही हूँ!

क्या करूँ? क्या करूँ? क्या करूँ?
चिल्लाती हुई मैं
सभी दिशाओं में
आग बुझाने वाले पानी की तलाश कर रही हूँ।

हिंदुस्तान में जो औरतें
बर्फ नहीं बन जातीं,
वे जलाई जाती हैं
या स्वयं ही जल जाती हैं।


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